Sunday, September 26, 2010


राष्ट्रमंडल या भ्रष्टमंडल खेल ?

 वाह री हमारी सरकार ... घर में नहीं दाने और  अम्मा चली भुनाने.  इस देश की जनता क्या पहले से ही आतंकवाद , भ्रष्टाचार और राजनीति के चलते अति त्रस्त नहीं थी जो अब उसके सामने common wealth Games रुपी दानव खड़ा कर दिया गया है. गरीबी और भुखमरी  के मारे इस देश में ऐसे कितने लोग होंगे जिन्हें पता होगा के सत्तर या अस्सी हज़ार  करोड़ में कितने सिफर लगते हैं ? 3 अक्टूबर को चमचमाते नेहरु स्टेडियम में सीना ताने खड़ा  चालीस करोड़ का सरकारी गुब्बारा गरीबों को जिस क्रूरता से ठेंगा दिखायेगा उसे शब्दों में बयान करना संभव नहीं ,  कोई भी  उत्पाद खरीदते समय जब VAT का चाबुक लगता है तो मन सोचने पर मजबूर हो उठता है के आम आदमी की जेब में यह सेंधमारी क्या इसीलिए  है ?


दिल्ली है  मेरी शान  कहने, गाने या इस गीत पर मुख्यमंत्री के थिरकने से दिल्ली सचमुच हमारी शान नहीं बन सकती. रेडियो पर जबरन बज रहे इस बेमानी गीत को सुनकर अपना रेडियो सेट तोड़ने का मन करता है, आम आदमी हूँ इसलिए दूसरा  स्टेशन लगा कर अपनी भड़ास निकाल लेता हूँ. हमारे  प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री शायद अपने अलबेले और करामाती सपनों की दुनिया में रहते हैं तभी तो उन्हें दिल्ली की सडकों पर भीख मांग रहे, कूड़ा उठा रहे, बोझा ढो   रहे बाल गोपाल नज़र नहीं आते. दिल्ली से सटे गुडगाँव में घुसते ही सरकारी बैनर बड़े जोश से कहता सुनाई पड़ता है : Welcome to the city of Malls पर  पहले ही ट्रेफिक सिग्नल पर जब बच्चों का समूह भिक्षावृति करते दिखता   है तो एहसास होता है की  सरकार और आम आदमी की  तरजीहें कितनी अलग हैं. 


शीलाजी आम आदमी का लबादा ओढ़ के दिल्ली पुलिस से एक अदद FIR तो दर्ज करा के दिखाइए नानी ना याद आ जाए  तो कहियेगा.  जनता पर रोब जमाते ये पुलिसिये एअरपोर्ट पर राहुल बाबा का मोबाइल फोन  ढूंडने में तो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं पर अगर किसी के साथ लूटपाट हो जाए तो मोनी बाबा बने खड़े बगले झांकते हैं. अगर किसी महिला की चेन खींच  ली जाए तो पुलिस प्रवचन करते हुए कहती है ज़माना खराब है सोने की चेन क्यों पहनी, शुक्र करो जान बच गयी सस्ते में छूट गए. FIR दर्ज करना तो इनके लिए ज़हर खाने के बराबर होता है. हमारे नेतागण कभी सरकारी अस्पताल में  इलाज कराने भी शायद ही गए हों, सफदरजंग सरीखे अस्पताल में अगर इन्हें खुद को पंजीकृत भी करवाना पड़े तो गर्मी और भीड़ के मारे  गश खाके गिर जाएं. इस  अस्पताल में आये मरीज़ को बमुश्किल ही बिस्तर,   स्ट्रेचर या वील चेअर नसीब होते हैं और अगर मिल भी जाएँ तो मरीज़ को वार्ड में पहुंचाने के लिए कोई वार्ड बॉय नहीं मिलता, मिले भी तो क्यों यह काम तो तीमारदारों का है (अस्पताल प्रशासन तो शायद यही समझता है). डाक्टर से मिलने के लिए तो कई घंटे कतार में खड़ा रहना पड़ता है. वार्ड बॉय से लेकर डाक्टरों की झिड़कियां खाते मरीज़ का इलाज तो भगवान भरोसे ही है. सफदरजंग देश का नामी गिरामी सरकारी  अस्पताल है बाकी बचे अस्पतालों के तो क्या कहने ? अगर Common Wealth की कई हज़ार करोड़ से लबालब भरी बाल्टी का एक छीटा भी यहाँ पड़ जाए तो आम आदमी को कितनी सहूलियत होगी इससे हमारी सरकार को क्या ? वह तो common wealth games के चलते शहर को सजाने में मशगूल है जनता पिसे तो पिसती रहे (माल चाहें जैसा भी हो पैकिंग अच्छी होनी चाहिए)  यहाँ तो भ्रष्टाचार और घोटालों के नए नए कीर्तिमान स्थापित किये जा रहें हैं. चाहें वह लाखों का एअर कंडीशनर खरीदना हो, मेडिकल उपकरणों के दस गुना अधिक दाम चुकाने हों या सरकारी टेंडर अपनी मन मर्ज़ी की कंपनी को देना हो, आश्चर्य होता है नेता का पेट है या अँधा कुआँ ना भरता है न फटता है. 


ऐसा लगता है जैसे हमारी सरकार और उसके सिपेसलार श्री श्री  कलमाड़ी ने जनता की गाड़ी कमाई को उड़ाने का ठेका उठा रखा है पांच करोड़ तो रहमान को थीम सोंग के नाम पर दे मारे और उन्होंने भी हमारी सरकार सरीखा बेजान और बेसिरपैर का गाना बना डाला अब सरकार उसे ज़बरदस्ती हिट कराने में लगी है. common wealth 2006 के दौरान  मेलबर्न  में ऐश्वर्या और रानी के ठुमकों पर करोड़ों बहाने की क्या आवश्यकता थी ? क्या भारतवर्ष के सभी शास्त्रीय कलाकारों ने पाँव में मेहँदी लगा रखी थी. इन खेलों के आयोजन की वजह से दिल्लीवासियों  को टेक्स और परेशानियों की जो दोहरी मार झेलनी पड़ रही है उससे सरकार बेपरवाह रहना ही पसंद करती है, बकोल दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित  और लेफ्टिनेंट गवर्नर तेजेंद्र खन्ना दिल्ली की सड़कों पर 2-3 घंटों का जाम तो आम है, जनता और मीडिया मोनसून  या गेम्स  को इसकी वजह  क्यों मानते हैं ? क्या करें शीलाजी जब नेता सत्ता के नशे में चूर हों तो जनता बौरा ही जायेगी. अपने वातानुकूलित काफिले में जब मुख्यमंत्री शान से दिल्ली की सडकों पर निकलती हैं तो उन्हें कहीं ट्रेफिक जाम नहीं मिलता, ना ही कहीं मलबा पड़ा मिलता है, उन्हें तो दिल्ली सुखी और संपन्न नज़र आती है. पता नहीं उन्होंने कौनसा करामाती चश्मा पहन रखा है जो उन्हें हकीकत से कोसों दूर रखता है.


 मुख्यमंत्री ने  अपने अफसरों को हुक्म दिया हुआ है के ट्रकों में सवार होकर जहाँ चाहें जब चाहें गड्ढे खोदे या पौधे लगायें ट्रेफिक जाम की चिंता ना करें दिल्ली को तो आदत है, तो क्या हुआ जाम में चाहे एम्बुलेंस  फंसे या स्कूल बस किसी की जान जाती है तो भले ही जाए. मैं दो दिन तक रिंग रोड पर घंटो  जाम में फंसा सड़क के बीचोंबीच पौधे लगने का यह तमाशा देखता रहा तीसरे दिन भी जब जाम मिला तो देखा कल जो पौधे  लगाये थे  आज उन्हें मवेशी खा रहे हैं, चलो common wealth के चलते किसी का तो भला  हुआ. डेड लाइन पे डेड  लाइन देती सरकार ने तो इस शब्द के माने ही बदल डाले. कलमाड़ी के क्या कहने उन्हें तो इंद्र का सिंघासन   मिल गया तो फिर  वह ज़मीन पर पाँव क्यों रखने लगे.


 तांगेवालों की रोज़ी रोटी छीनने के बजाये अगर यही तांगे मुंबई  की तर्ज़ पर हेरिटेज  की तरह पेश किया जाते   तो कितनो का भला होता  पर सरकार ने कोई भलाई  का ठेका लिया  है जो ऐसा करेगी . अब  सरकार ने  एक और तुगलकी फरमान जारी किया है common wealth games की अनूठी लेन जिसका आम जनता द्वारा इस्तेमाल एक बहुत बड़ा जुर्म होगा, जाम में फंसे इस शहर के  इससे दुर्भाग्यपूर्ण शायद कुछ नहीं हो सकता. इस सरकारी फैसले को सुनकर लगता है हम एक बार फिर गुलाम हो गए, कोई सरकार इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है पर बंधु राज तो नेता ही करते हैं आम आदमी की क्या बिसात. 


ना हमें खेलों से कोई आपत्ति है नहीं खिलाडियों से कौन नहीं चाहता उसका शहर पूरी दुनिया देखे ? हमें आपत्ति है तो सरकारी रुख से. आज इस देश में सब बराबर कहाँ हैं आम आदमी और नेता के बीच की दूरी बदती ही जा रही है क्योंकि सत्ताधारी तो अपनी मन मानी पर उतर आयें ही और विपक्ष भी मुसीबत के समय कबूतर की भांति ऑंखें मूंदे बैठा है. नेता चाहें सत्ताधारी पक्ष का हो या विपक्ष का यह सब एक जैसे ही होते हैं.    सवाल यहाँ यह उठता है के common wealth games का क्या औचित्य है ब्रिटिश राज कबका ख़त्म हो चला फिर गुलामी के परिचायक यह खेल क्यों. जितना पैसा इन खेलों के आयोजन में खर्च हो रहा है या खाया जा रहा है उसमें कितनी ही खेल अकादमियां, कितने अस्पताल, शेक्षिक संस्थान बन जाते और शायद कई किसान भी  आत्महत्या करने से बच जाते. 


आज इन खेलों के आयोजन में बाधा आने की कोई खबर मिलती है तो सरकार की किरकिरी होते देख मन को कहीं ना कहीं अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ किरकिरी मेरे देश की नहीं उसकी निखट्टू सरकार की है. आज के समय में देश और सरकार/नेता  दो अलग चीज़ें हैं अगर ऐसा ना होता तो अफज़ल गुरु कबका  अपने अंजाम तक पहुँच गया होता, मायावतीजी अरबों की लागत का पार्क बनाने का विचार भी अपने मन में नहीं लातीं, आडवाणीजी जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष ना बताते. 


अपने खेल मंत्री के तो कहने ही क्या गोपीचंद और पहलवान सतपाल में  से एक  की पहचान पूछ  बैठे और एक को बिना जाने कह डाला के " हट जा ताऊ पाछे ने" और फिर भी शर्म के मारे  आँखें नहीं झुकीं. बकोल गिल साहिब खेलों के आयोजन तो लड़की की शादी की तरह हैं जिसकी तेयारी  आखरी समय तक चलती है लेकिन सरजी अगर हमारे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं तो हम लड़की की शादी पांच सितारा होटल में क्यों कर रहे हैं ? भूख  से बिलखते आदमी को कव्वाली सुनाओगे तो फिर  या तो  वह  अपना सर पीटेगा या आपका. आज इस महान देश का एक आम आदमी होने के नाते इस फजूलखर्ची के विरोध में मैं इन Common Wealth Games का बहिष्कार करने का  प्रण करता हूँ,  ना तो मैं यह खेल स्टेडियम  में देखने जाऊँगा और नाही TV पर ही देखूँगा और कोशिश करूंगा के ना ही इन खेलों के प्रायोजकों का कोई उत्पाद इस्तेमाल करूं क्योंकि यह राष्ट्रमंडल खेल नहीं  भ्रष्टमंडल खेल हैं......